"आज शाम पाँच बजे आई.एन.ए. ...दिल्ली हाट"
"ओ.के."
"ठीक पाँच"
"ओ.के."
रावी और जतिन के बीच दिन भर में न जाने कितने मैसेजेस का आदान-प्रदान होता
रहता है। कहने को दोनों एक ही जगह काम करते हैं पर कितने जोड़ी आँखें और कितने
जोड़ी कान उन्हीं की तरफ लगे रहते हैं। जैसे ही दोनों के हाथ फोन पर जाते हैं
कितने होंठों पर मुस्कुराहट तैरने लगती है। चाहे खट्टी हो या मीठी। एक ही ऑफिस
के अलग हिस्सों में बैठे रावी-जतिन जानते हैं कि वो लोगों के मनोरंजन का
बेहतरीन साधन हैं। एक लाइव, मजेदार टाइम पास। उनके इर्द-गिर्द घूमते लोग प्यून
से लेकर वाइस प्रिंसिपल तक सभी को इस किस्से में गहरी दिलचस्पी है। ऊपर से खुद
को निस्पृह दिखाने वाले भी आँख-कान खुले रखते हैं। और रूमाल से नाक को
पोंछपाँछ कर उसके सूँघने की क्षमता पर आँच नहीं आने देते। झूठी और गढ़ी हुई
कोई भी बात इन दोनों के नाम से खूब चलती है पूरे स्कूल में। नॉन टीचिंग ही
नहीं टीचिंग स्टाफ भी उनके चेहरे पढ़कर कहानियाँ रचने का एक्सपर्ट हो रहा है।
रावी-जतिन दोनों से ये तमाम हरकतें छिपी नहीं हैं। पर सावधानी हटी दुर्घटना
घटी की तर्ज पर दोनों अतिरिक्त रूप से सावधान ही रहते हैं। दोनों के लिए हर पल
एक आफत की तरह गुजरता है। बैठने-उठने, बोलने-बतियाने में हर तरफ नजरों का कड़ा
पहरा उनको साफ दिखाई देता है। जतिन तो बार-बार कहता है - "दो दिल मिल रहे हैं
मगर चुपके-चुपके... " और रावी का जवाब हर बार उसे सावधान करते हुए यही होता है
- "सबको हो रही है खबर चुपके-चुपके।"
सप्ताह में दो-तीन बार रावी बहाने बनाकर जतिन से मिलने में कामयाब हो ही जाती
है। यों तो रोज ही जतिन की आँखों से मिली तारीफ पाने के चक्कर में रावी तैयार
होकर आती है पर जिस दिन दोनों के घूमने का प्लान होता है उस दिन तो रावी से
नजर ही नहीं हटती। कपड़े और बालों के अंदाज से ही नहीं उसके बोलने-चालने के
अंदाज से ही सबको शक हो जाता है कि आज तो कोई खास बात है। जतिन के साथ समय
बिताने की कल्पना से ही वह दिन भर अपने में मगन सी रहती है। दिमाग में लगातार
एक लिस्ट बनाती रहती है जरूरी बातों की जो आज जतिन से हर हाल में करनी ही हैं।
वैसे तो मोबाइल से हर तरह की सहूलियत है पर हाथों में हाथ और आमने-सामने की
बात का मजा ही और है। उस दिन तो कोई कुछ पूछे पहली बार में रावी को समझ ही
नहीं आता फिर चौककर कहती है "क्या कहा दोबारा कहिए"। लोग कोहनी मारकर आँखों
में एक-दूसरे से कहते हैं - "हाँ भाई दिमाग तो जतिन में लगा रखा है हमारी
बातें क्या खाक समझ में आएँगी।" जतिन अपने आप को संयत रखने का ढोंग बखूबी निभा
लेता है पर रावी अपना पार्ट निभाने में अक्सर चूक जाती है। कहने को जतिन स्कूल
का यूडीसी है और रावी उसके मातहत तीन एलडीसी में से एक। इसलिए मिलने-मिलाने के
अवसर कम नहीं हैं पर ये मिलना भी कोई मिलना है? स्कूल से ही अगर घूमने का
कार्यक्रम बनता है तो दोनों, लोगों की आँखों में धूल झोंकते हुए रोज की तरह
अपने-अपने रास्तों की ओर निकलते हैं और फिर तय किए प्वांइट पर मिलकर रावी जतिन
की बाइक पर सवार हो जाती है। रावी हेलमेट लगाना कभी नहीं भूलती। कई बार जतिन
से कहती है -"या तो गाड़ी खरीद लो नहीं तो एक बुर्का।"
और जतिन यही जबाब देता - "गाड़ी तो आ ही जाएगी और कुछ दिन बाद बुर्केवाली घर
ही आ जाएगी।"
नए जमाने की तमाम हवा लगे होने के बावजूद जतिन के ये शब्द अनोखा-सा रोमांच भर
देते रावी के भीतर।
आज भी रावी की लिस्ट हमेशा की तरह तैयार थी। वैसे तो वह जतिन के सामने एक
धैर्यवान श्रोता की ही तरह बैठती थी पर अपनी बात कहने के बाद। आज की लिस्ट के
मुताबिक पहला मसला चंदेल चाचाजी और उनकी जासूसी का था। नाक में दम कर रखा था
उन्होंने।" अरे सगे चाचा थोड़े ही न हैं तुम्हारे जो इतना डरती रहती हो उनसे।"
"सगे नहीं हैं पर रोब तो पूरा है उनका। पापा इसी स्कूल से जो रिटायर्ड हुए हैं
और फिर मेरी नौकरी लगवाने में भी़...
"उस नाते तो मैं तुम्हारा चाचा हुआ मिस रावी मित्तल। तुम्हारी नौकरी लगवाने
में मेरा रोल सबसे ज्यादा है। तुम्हारे पापा ने इस काम के लिए बड़ी चिरौरी की
थी मेरी। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि उनके रिटायर होने से पहले तुम यहाँ आ जाओ।
कम पापड़ नहीं बेले हैं मैंने।"
"हाँ-हाँ सब मतलब के लिए तो..."
"सच रावी जब तक तुम्हें देखा और जाना नहीं था तुम मेरे लिए मित्तल सर की बेटी
ही थीं। एक सहकर्मी होने के नाते ही यहाँ तुम्हारी अस्थायी नियुक्ति में मेरी
और तुम्हारे चाचाजी चंदेल साहब की भूमिका थी। पर क्या तुम नहीं जानतीं कि यहाँ
स्थायी करवाने के लिए मैंने कितनी भागदौड़ की। वो तो भला हो प्रिंसिपल सर का
जो मेरी बात सुन-समझ लेते हैं नहीं तो इन पब्लिक स्कूलों में नौकरी मिलनी
कितनी मुश्किल है?"
"यही तो मतलब था।"
"अब प्यार को मतलब कहोगी तो कैसे चलेगा?"
"पर चाचाजी को पक्का शक है। अपने जासूस छोड़ रखे हैं उन्होंने। उनको अपने घर
देखकर जान सूख जाती है मेरी।"
"परेशान न हो रावी इतने भी बुरे नहीं हैं।"
"हाँ बुरी तो मैं हूँ जो यहाँ तुम्हारे चक्कर में अपना समय गँवा रही हूँ। तुम
कैसे भी इस मुसीबत से मेरा पीछा छुड़वाओ।"
"कैसे?"
"पापा से सब कह दो। देर हो जाएगी तो..."
"ऐसे कैसे देर हो जाएगी? थोड़ा इंतजार करो। और तुम भी न यही सबके लिए मिलने आई
थीं यहाँ? चलो कुछ और बात करो।"
"रहने दो।"
"अरे कर लूँगा बाबा अब तो कुछ और बात करो न प्लीज।"
"अच्छा जतिन क्या शादी के बाद भी हम यहाँ ऐसे ही आते रहेंगे?"
"क्यों नहीं? शादी होने से सब कुछ बदल जाएगा क्या?"
"हाँ सब तो यही कहते हैं। प्रेम-विवाह भी बाद में बाकी विवाहों जैसा ही हो
जाता है।"
"क्या मतलब?"
"मतलब मैं नौकरी और घर सँभालूँगी और तुम बाहर रहोगे।"
"रावी शादी के बाद क्या मुझे घर से निकाल देने का इरादा है तुम्हारा? और तुम
ही घर क्यों सँभालोगी? मेरे घर को मैं भी सँभालूँगा। और तुम कभी-कभी अकेले आना
यहाँ शाम बिताने। कभी घूमने-फिरने अपने दोस्तों के साथ। मैं खाना बनाकर
तुम्हारा इंतजार करूँगा।"
"जाओ-जाओ ये सब कोरी बातों से न फुसलाओ।"
रावी-जतिन की शामें ऐसी ही नोंक-झोंक में निकल जाती। जतिन को कई बार लगता कि
रावी जैसे एक अबोध बच्चे की तरह है जिसने अपनी माँ-दादी-नानी को देखकर जीवन के
कुछ निष्कर्ष निकाले हुए हैं और समय के साथ उन्हें बदलना नहीं चाहती। इसीलिए
जतिन के घर सँभालने और खाना पकाने जैसी बातों पर उसे विश्वास नहीं होता। जतिन
गहरे अफसोस से भर उठता था कभी-कभी। कितनी मेहनत की है जतिन ने कि अपने पिता
जैसा न बनने के लिए, रावी क्या जाने? आज भी अतीत जतिन की आँखों में जिंदा है।
"शारदा कितनी बार समझाना पड़ेगा तुझे? एक बार में सुनता नहीं है क्या? कह दिया
दाल-सब्जी में मिर्च नहीं डलेगी, इमली नहीं गिरेगी। क्यों डाला है गरम मसाला?
क्या छौंके बिना दाल गले नहीं उतरेगी? बाल-बच्चे वाली हो गई पर शौक-मौज नई
दुल्हन जैसे। चटोरी कहीं की।"
जब तक पिताजी जीवित रहे जतिन को समझ ही नहीं आया कि क्यों पिताजी जबरन माँ को
अपने जैसा सादा खाना खाने पर मजबूर करते रहे सिर्फ एक तर्क देकर-"सादा खाना
खाओ शरीर ठीक रहेगा और चंचलता भी काबू में रहेगी।"
और माँ धीरे-धीरे रँगती गई पिताजी के रंग में, एक बेरंग, बेरौनक रंग में। पिता
की कठोर छवि के आगे अपनी फूल-सी इच्छाओं को मसलती माँ। बचपन से ही चटपटे खाने
की, घूमने-फिरने, सजने-सँवरने और गप्पे मारने की शौकीन माँ अपनी जवानी में ही
वृद्ध-सी नजर आती। पिताजी ने बड़ी चतुराई से ढाल लिया था उन्हें। कभी-कभी जतिन
को माँ पर गुस्सा भी आता। जब भोजन को इतने अरुचिकर ढंग से गटकती माँ को देखता।
माँ फेंक क्यों नहीं देती है ये थाली? क्यों अपने सारे गुस्से को बेस्वाद दाल
की तरह हलक में उँड़ेल लेती है? पिताजी की चालाकी क्यों नहीं समझती है जो खुद
अस्वस्थ रहने के चलते माँ को भी अपने जैसा बनाने पर तुले हैं। जीवन भर तमाम
इच्छाओं को मारने वाली माँ जब विधवा हुई तो रिश्तेदारों से भरे घर में एकांत
पाकर जतिन से बोली "बेटा कहीं से खिचड़ी मिल जाए खूब मटर वाली, ऊपर से घी और
ढेर सारा गरम मसाला डालकर ले आ। बड़ा मन हो रहा है। कबसे कुछ खाया ही नहीं।"
उस दिन से 'कबसे' शब्द जतिन के मन में अटक गया। उसके बाद जतिन ने खुद से पकाना
और माँ की पसंद का उसे खिलाना शुरू कर दिया। माँ को पकाने से भी अरुचि हो गई
थी। कई बार जतिन पूछ-पाछकर या इंटरनेट और टीवी की मदद से नई चीजें बना देता,
तो कई बार बाहर से चाट-पकौड़े भी आ जाते। उसके जीवन की सबसे बड़ी साध ही माँ
को उसकी पसंद का खिलाना-घुमाना हो गई। माँ से कहता भी कि "माँ शादी के बाद
तेरी बहू जैसा खाना चाहेगी वैसा ही खाएगी। तेरी तरह इच्छाएँ नहीं मारेगी।" और
माँ कहती "कहकर नहीं करके दिखाना तू। और खाने-पीने में ही नहीं घूमने,
बोलने-बतियाने, सजने-सँवरने सबका ध्यान रखना होगा तुझे।" इसीलिए रावी के भोले
निष्कर्षों पर जतिन मन में ही हँसकर रह जाता। वह शादी के बाद जिंदगी को उसे
जिंदादिल तोहफे के रूप में देना चाहता था।
स्कूल में केवल एक संजीव सर ही थे जिन्हें जतिन एक परिपक्व और संवेदनशील इनसान
समझता था और कई बार रावी से जुड़ी बातों को उनसे साझा भी किया करता था।
क्लासेज से कभी-कभार फुर्सत मिलने पर वे जतिन के साथ कुछ समय बिताते। जतिन
उन्हें रावी से जुड़ी बातें बताने को तो आमादा रहता ही साथ ही अपनी जिज्ञासाओं
के हल और अपनी संशयों को भी बाँटता। जल्दी ही उसे रावी के घर भी जाना था तो
थोड़ा परेशान भी था। अपनी परेशानी लेकर जतिन एक दिन संजीव सर के सामने हाजिर
हो गया।
"सर, रावी के पिता तो मुझे बहुत अच्छी तरह जानते हैं पर मैंने उन्हें जितना
जाना है वे जात-बिरादरी और धर्म के बड़े पक्के हैं। क्या वे मुझे
स्वीकारेंगें?"
"मेरे हिसाब से तो तुम एक बार उनसे मिल लो बाकी निर्णय तो तुम दोनों का ही है।
तीस पार की उम्र है रावी की, शादी के बारे में सोच तो रहे ही होंगे। न भी
मानें तो तुम लोग अपना निर्णय जीना। दोनों समझदार हो, आत्मनिर्भर भी हो।"
"पर मुझे लगता है कि रावी के मन को ठेस लगेगी अगर वे नहीं माने तो। उसका सपना
है उसके परिवार की सभी शादियों की तरह सब हँसी-खुशी और पूरे तामझाम के साथ हो।
देखने से तो समझदार लगती है पर मैं ही जानता हूँ कि अभी उसमें कितना बचपना
बाकी है।"
"और तुम क्या सोचते हो जतिन इस बारे में?" संजीव सर ने तार्किक मुद्रा में
सवाल किया।
"हँसी-खुशी तो मैं भी चाहता हूँ सर पर तामझाम नहीं। मैंने अपनी शादी के बारे
में यही सोचा है कि किसी से भी आर्थिक मदद नहीं लूँगा। जो मेरे पास है जैसा है
उसी में अच्छा करने की कोशिश रखूँगा। रावी से भी मुझे कोई मदद नहीं चाहिए। पर
वो मेरी बातों पर गौर ही नहीं करती। उसे तो लगता है माँ-बाप बेटियों के लिए
करते ही हैं सब। अक्सर हम दोनों की इस बात पर तकरार हो जाती है सर।"
"सही सोचा है तुमने... और रावी अभी तक इसे सामान्य विवाह की तरह ही ले रही है।
हाँ, पर अब देर करना सही नहीं। एक बार मिल लो मित्तल जी से और तुम दलित-वलित
तो हो नहीं जो उनके गले नहीं उतरोगे। मेरी जरूरत हो तो बताओ?"
"तो आप क्या सस्ते में छूट जाएँगे सर? पर अभी मैं अकेले जाऊँगा फिर माँ और आप
चलिएगा। पिताजी हैं नहीं और बड़े भैया को बिना दहेज वाली शादी में कोई
इंटरेस्ट होगा नहीं।"
जतिन ने सोच लिया कि अगले इतवार हिम्मत करके रावी के पिता से साफ-साफ बात कर
लेनी है। बीच के कुछ दिन अपने मन को हिम्मत बँधाता रहा। रावी अन्य प्रेमिकाओं
की तरह अपने पिता को अच्छी लगने वाली बातें उसे बताने लगी ताकि बात करने में
सुविधा हो और बात आसानी से बन जाए। इसी बीच स्कूल का एनुअल डे आ गया। एनुअल डे
का मतलब सांस्कृतिक कार्यक्रमों से लेकर पूरे स्कूल के भोज तक था। कई दिनों की
मेहनत के बाद जब भोजन का समय आया तो सभी लॉन में इकट्ठे हो गए। इमारत लगभग
खाली थी। रावी और जतिन भी भोजन में शामिल होने जाने वाले थे। पर रावी ने सुबह
ही जतिन को बता दिया था कि आज उसकी पसंद का मूँग दाल हलवा बनाकर लाई है। लोगों
के न होने से कुछ निश्चिंत होकर जतिन और रावी हलवा खा रहे थे। अपनी
प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया में जतिन ने रावी के दोनों हाथ अपने हाथों में थाम
लिए। रावी के बालों को सहलाने के लिए वह उसके करीब आया ही था कि न जाने कहाँ
से चंदेल सर प्रगट हो गए। आज दोनों रँगे हाथ पकड़े गए। जतिन हड़बड़ाहट में कुछ
समझ ही नहीं पाया और रावी का हाथ थामे खड़ा रहा। रावी ने जल्दी से हाथ छुड़ाकर
नजरें नीची कर लीं। चंदेल सर ने दोनों में से किसी को कुछ भी नहीं कहा। जरा
देर ठिठके और चले गए। एक तूफान गुजरा था पर एक बड़े तूफान की आशंका के साथ।
रावी उसी समय घर चली गई और जतिन यही सोचता रहा कि किसी भी क्षण मित्तल सर का
फोन आता ही होगा।
सारी रात इसी उधेड़बुन में निकल गई कि अब क्या होगा? क्या बीती होगी रावी पर।
हालाँकि शाम को रावी से कुछ देर बात करने पर जतिन ने जान लिया था कि घर पर कोई
सवाल-जवाब नहीं हुआ पर हाँ घर की हवा को सामान्य नहीं कहा जा सकता था। माँ को
चाहकर भी नहीं बता पाया जतिन कि चिंता में अपनी सारी रात काली कर देगी माँ।
जतिन को बार-बार रावी के शब्द याद आ रहे थे - "देर हो जाएगी जतिन।" और सचमुच
देर हो गई। चंदेल सर जरूर गए होंगे मित्तल सर के कान भरने। अब इतवार को अपराधी
की तरह जाना पड़ेगा और दूसरी ही तरह बात सँभालनी होगी। न चाहते हुए भी सारी
स्थिति बिगड़ चुकी थी। सुबह स्कूल पहुँचकर तो देखा रावी की कुर्सी खाली है।
ज्यों-ज्यों समय गुजरता जतिन का मन घटने लगता। सवालों के अनगिनत जंगल और आंशका
के स्याह बादल सामने दिखाई दे रहे थे। हिम्मत करके फोन किया तो देर तक बजता
रहा और किसी ने फोन नहीं उठाया। अजीब बात ये भी थी कि चंदेल सर से भेंट हुई तो
वो भी पहले की तरह ही मिले। चेहरे और बातों से कल की किसी नाराजगी का कोई
सुराग नहीं मिला। अब किससे पूछे जतिन रावी का हाल? ऐसे हालात में क्या संडे का
इंतजार करे या निकल जाए अभी उसके घर के लिए। सारा दिन काम में मन नहीं लगा
जतिन का। संजीव सर भी आज व्यस्त थे फिर निर्णय तो उसे खुद करना है - के ख्याल
से जतिन दिन भर खुद से ही उलझता रहा।
शाम के घिरते जाने पर आखिरकार उसने सोच ही लिया "बस अब नहीं। रावी की हालत
जाने बिना आज घर जाना गुनाह है।" शाम को बिना इत्तला किए जतिन रावी के घर
पहुँच गया।" जी, मैं जतिन हूँ मित्तल सर घर पर हैं क्या?" सामने शायद रावी की
मम्मी थीं। बिना किसी उत्सुकता के एकदम शांत जवाब मिला - "नहीं घर पर नहीं
हैं। कोई काम है?"
"जी मिलना था।"
"ठीक है बता दूँगी। फोन करके आना।" पानी पूछने और बिठाने की औपचारिकता पूरी
किए बिना ये संवाद हुआ। इस दौरान जतिन की हर साँस रावी की आहट पाने की कोशिश
करती रही। पर व्यर्थ। लगा जैसे किसी गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है। चाहते
हुए भी पूछ नहीं सका - "रावी कहाँ है? कैसी है?"
आज फिर रावी नहीं आई। जतिन का संदेह यकीन में बदल रहा था कि जरूर मारा-पीटा
गया होगा। पिटाई के निशान और सूजी हुई आँखें लेकर कैसे आती स्कूल? रावी का फोन
आज भी बजता ही रहा। दूसरे नंबरों से भी कोशिश की पर व्यर्थ। कई प्रयासों के
बाद बिना एक पल गँवाए उसने मित्तल सर को फोन लगाया। सामान्य ढंग से हुई बातचीत
में उन्होंने कल शाम का समय दिया। उनकी बातों से जतिन को किसी तूफान की भनक
नहीं लगी। मन को राहत पहुँची पर रावी से बात न हो पाना और उसका स्कूल न आना
बहुत बुरा लग रहा था।
"कैसे हो जतिन? उस दिन तुम आए... कहीं गया हुआ था... पर बता देते मुझे तो...
ठहर जाता।"
पानी पीते हुए जतिन को लगा एक वाक्य बोलने में इतनी जगह रुकना? पर फिर खुद को
संयत किया कि मित्तल सर के लिए भी तो ये सब अजीब होगा। चाय आने तक भी रावी का
पता नहीं था। जतिन को लग गया उसे रावी की गैरहाजि़री में ही बात करनी होगी
जबकि रावी घर में ही मौजूद है।
"सर मैं और रावी चाहते हैं कि हमें आपका आशीर्वाद मिले... शादी के लिए।"
बिना कोई सवाल किए, बिना हड़बड़ाए मित्तल सर ने कहा - "मुझे अपने बड़ों से बात
करनी होगी।"
"पर आपको तो कोई एतराज नहीं हैं न सर?" अपनी बेचैनी पर काबू न पाते हुए जतिन
के मुँह से निकल ही गया।
मित्तल सर जैसे तैयार थे इस सवाल के लिए - "देखो जतिन इतनी जल्दी कुछ कह पाना
मेरे लिए संभव नहीं। बहुत-सी बातें देखनी होगी अभी।"
"सर... रावी... रावी से..."
"रावी की मौसेरी बहन की शादी है। हाथ बँटाने के लिए उसे बुलाया है। गलती से
मोबाइल भी यहीं छोड़ गई है।" आगे के सवाल का अंदेशा लगाकर जैसे मित्तल सर ने
जवाब दिया। अब बेशर्म होकर मौसी के घर का पता और नंबर भी तो नहीं माँगा जा
सकता। शंका होते हुए भी जतिन का मन कहा रहा था - "पर सही भी तो हो सकता है जो
कुछ उन्होंने कहा। मिले तो ढंग से ही। चाय-वाय भी पिलाई और गलत भी क्या कहा
परिवार से बात तो करनी ही पड़ती है शादी-ब्याह के मामलों में। और बहन की शादी
का जिक्र तो रावी ने भी किया था।" पर स्कूल को बिना इन्फॉर्म किए जाना और बिना
मोबाइल के जाना अखर रहा था जतिन को। तमाम हलचलों के बीच बस एक सुकून था कि
आखिरकार अपनी बात कह पाया आज। संजीव सर ने भी हौसला बढ़ाया - "जवान आधा काम तो
कर ही आए हिम्मत से तुम। यकीन रखो सब ठीक होगा।" पिछले कुछ दिनों से चेहरे पर
चस्पाँ तनाव की वक्र रेखाएँ आज किसी हद तक स्थिर हुईं। रात को सोचा माँ से कह
दे सब पर रोक लिया कि अब अच्छी खबर ही सुनाएगा माँ को। उस दिन देर तक गप्पबाजी
हुई आज माँ के साथ।
"एक बात बताओ माँ, सामने फ्रेम वाली तसवीर में तुम पिताजी के साथ क्यों नहीं
बैठी हो? वे बैठे हैं और तुम खड़ी हो?"
"अरे अपने बराबर कभी बिठाया ही कहाँ रे उन्होंने।"
"तुम जा बैठती... जगह तो खाली थी न उनकी बगल में।"
"बात तो मन में जगह की थी न रे... चल तू बिठा लियो अपनी रावी को बगल में। वही
फ्रेम लगा देंगे इसके बगल में, ऊपर बैठे-बैठे भी कुढ़ेंगे मुझसे।" इस बात पर
दोनों देर तक हँसते रहे।
जतिन के नसीब में आए राहत के पल रेत की मानिंद हाथ से फिसल गए। जीवन में एक
अजीब अस्थिरता, असुरक्षा और अनिश्चितता ने घर कर लिया। सहज प्रेम की सुंदर
कल्पनाएँ बिखर रही थीं। रावी से कोई मुलाकात नहीं, बातचीत नहीं। कहीं कोई राह
नहीं, दिशाएँ सब उलझीं और अनुत्तरित। दिन हल्की-सी उम्मीद से शुरू तो होता पर
एक बड़ी नाउम्मीदी पर उसे अकेला छोड़ जाता। दिमाग रावी को इतना याद करता कि
अक्सर जतिन को लगता कि वह रावी की सूरत ही भूलता जा रहा है। ऐसे में स्कूल का
काम उपेक्षित हो रहा था। किसी से बात करने की इच्छा भी नहीं होती थी। हरदम उसे
लगता कि पीठ पीछे ही नहीं अब सामने भी मजाक उड़ाने में लोग संकोच नहीं कर रहे
हैं। अक्सर उसके कान व्यंग्य बाणों के नुकीले प्रहारों से बधे रहते और मन
सोचता कि समाज किस हद तक असंवेदनशील है। इधर चंदेल सर ने तो इस विषय में उससे
बात करने से साफ मना कर दिया। सब कुछ ठहरा, थमा और रुका हुआ था। और रावी जैसे
वो कहीं थी ही नहीं। सपनों में रावी, जतिन को किसी तंग तहखाने में चीखती दिखाई
देती। कई शाम दूर से उसके घर पर निगाह भी रखता था जतिन, पर सब व्यर्थ। सपनों
से भरी एक लड़की इस शहर में गायब कर दी गई थी और कहीं कोई हलचल नहीं थी। सब
अपने कामों में पहले की ही तरह व्यस्त थे। किसी को कोई चिंता ही नहीं थी। इस
बीच जतिन थर्रा जाता, भाई और पिता द्वारा या रिश्तेदारों द्वारा जाति, धर्म की
रक्षा में अपने सपनों के आकाश में स्वतंत्र उड़ने वाली लड़कियों के कत्ल की
खबरों से। कई बार लगता कि गुपचुप उसकी शादी तो नहीं कर दी गई है। रावी पर किए
अत्याचारों के बारे में सोचकर एक अपराधबोध से रोज भरता जा रहा था जैसे। जतिन
के पास सिर्फ इंतजार बचा था-एक लंबा इंतजार।
"कैसे हो जतिन?"
"रावी तुम हो न? कहाँ हो रावी? कैसी हो?" भर्राए गले से जतिन के बोल फूटे।
"सब भूल जाओ जतिन। मैं अपने परिवार को कोई दुख नहीं पहुँचाना चाहती।"
"नहीं रावी। ये क्या कह रही हो? अच्छा एक बार मिल लो फिर बात करते हैं।"
"नहीं जतिन... अब कभी नहीं।"
"नहीं रावी, रुको, सुनो तो... सुन रही हो न... बस एक बार हिम्मत करके आ जाओ
मैं सब सँभाल लूँगा रावी। बस एक बार। क्या इस दिन के लिए देखे थे हमने वो
सपने? रावी मैं कह...।" बात पूरी हुए बगैर ही फोन कट गया या काट दिया गया।
जतिन के अल्फाज कुछ देर साँस के साथ धड़के फिर किसी अँधेरे में गुम होते चले
गए। अब क्या होगा? यही सबसे बड़ा सवाल था। रावी के जिंदा होने की सूचना कितना
कुछ खत्म होने के साथ मिल रही थी। कितना सपाट था रावी का स्वर। चिंताओं और
तनाव के दुष्चक्र लगातार जतिन को अपनी गिरफ्त में लेते जा रहे थे। अब क्या
होगा?
"रावी को आना ही चाहिए जतिन, चाहे कैसी भी परेशानी हो।" संजीव सर सब जानकर
निर्णयात्मक ढंग से बोले। पर जतिन न सिर्फ रावी के अबोध मन का जानकार था बल्कि
उसके द्वारा जीवन के बनाए गए सुरक्षित फ्रेम की भनक भी थी उसे, जिसमें
नानी-दादी और माँ के जीवन-निष्कर्षों की तसवीर जड़ी थी। ये तसवीर काफी खुशहाल
दीखती थी। जिसमें तीनों औरतें मजबूती से रावी का हाथ थामे हैं। संजीव सर को
रावी को लेकर एक सख्त नाराजगी थी पर जतिन रावी के असमंजस और उसकी पीड़ा को भी
समझ पा रहा था। क्या रावी उस फ्रेम में उन तीन महिलाओं से झिटककर खड़ी अपनी
दुखी तसवीर की कल्पना से सिहर नहीं उठती होगी? कैसे उनसे अपना हाथ छुड़ा सकेगी
रावी?
"इतनी बच्ची भी नहीं है रावी। पैरों पर खड़ी है। समझदारी से काम ले और क्या
प्यार करते समय इन खतरों के बारे में सोचा नहीं होगा उसने?" संजीव सर रौ में
बोले चले जा रहे थे।
जतिन के बँधे होंठ भाषा की हद से बाहर हो चले थे पर मन जोर-जोर से कह रहा था
"आप नहीं समझते सर रावी को। पैरों पर जरूर खड़ी है पर खड़ा करवाया है उसके
पापा ने। उसकी मंजूरी कहाँ थी? भले ही मुझसे प्यार करती है पर औरों के
निर्णयों पर जीने की आदत है उसे। खुद को अकेले कैसे निकालेगी उस फ्रेम से?
तसवीर की अहमियत और उसमें रावी की सुरक्षित जगह की कितनी दुहाई दी गई होगी। वो
तो मेरे 'मैं सब ठीक कर दूँगा' जैसे चमत्कारिक शब्दो में बँधी चल रही थी अब
तक। अब जीवन के इस मोड़ पर उसे मेरे शब्दों का जादू भी बेअसर लग रहा होगा।
"जिस समाज में रहती है क्या जानती नहीं कि प्रेम की क्या कीमत चुकानी पड़ती
है? शादी से पहले धमकियाँ और हत्याएँ। तरह-तरह के अत्याचार और शादी के बाद
धोखे से बुलाकर लड़की को मारकर गाड़ देना और लड़के की लाश को उसके घर के आगे
फेंक देना।" संजीव सर रावी की चुप्पी को अपनी तीखी प्रतिक्रिया से भर रहे थे।
"जानती क्यों नहीं है सर सब जानती है पर उसका मन? उसका क्या सर? मन नहीं मानना
चाहता ये सब। मन तो उसका अपनी बहनों की तरह हँसी-खुशी विवाह करना चाहता है।"
जतिन के शब्द जुबान पर आकर भी खामोश थे। वह खामोश और अकेला दोतरफा लड़ाई लड़
रहा था। अपनी और रावी के हिस्से की।
"तुम्हारी चुप्पी को क्या समझूँ जतिन? मित्तल सर भी झाँसा ही दे रहे हैं और
क्या?"
"सर चुप कहाँ हूँ, सब जानता हूँ। पर मुझे रावी के आने का इंतजार है।"
"और वो नहीं आई तो?" संजीव सर के सवाल ने जतिन को निरुत्तर कर दिया। पर रावी
से फोन पर हुई बात ने जतिन को थोड़ी-सी आस बँधी थी कि रावी जरूर लौटेगी।
इधर रावी की लंबी गैरहाजिरी के चलते एक दिन जतिन के डेस्क पर प्रिंसिपल सर की
ओर से भिजवाया गया नोटिस उसके साइन के लिए आया। पत्र में रावी के आने की अंतिम
मियाद तय थी जिसके बाद उसकी सेवाएँ समाप्त समझी जाएँगी। सारे स्कूल में इस
नोटिस को लेकर एक हलचल थी। सब लोग तमाशे की अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार
करने लगे। नोटिस पर स्टैंप लगाकर अपने इनिशियल करते हुए और वापिस प्रिंसिपल सर
को भेजते हुए जतिन के मन ने कहा "अब रावी लौट आएगी। कितनी कोशिशों से लगी
नौकरी को कोई क्यों ऐसे ही जाने देगा वो भी नौकरियों के अकाल के इस महाकाल
में?" ये नोटिस जैसे जतिन की आशा का एकमात्र आधार बनकर उसके सामने था। उसे माँ
के शब्द याद आए "बेटा अच्छे दिन नहीं रहे तो देखना बुरे भी गुजर जाएँगे।"
इंतजार की घड़ियाँ एक बार फिर से जतिन को रोमांचित करने लगीं। रावी की मेज से
गुजरते हुए यों ही उसे दुलार से सहलाया जतिन ने। कुर्सी पर मुस्कुराती रावी
नजर आई। अचानक ही जतिन फिर से सब बातों-यादों को सहेजने लगा। फिर से सारे सपने
अपनी माँगों को लेकर जतिन के सामने खड़े थे और जतिन एक बार फिर से उन्हें
साकार करने के जोश में भर उठा था। वह जानता था कि रावी को तमाम हिदायतें देकर
भेजा जाएगा। हो सकता है वो कुछ दिन बोले भी न, उसकी उपेक्षा करे। पर फिर भी
जतिन को भरोसा था कि वो सब ठीक कर लेगा। शब्दों का जादू खुद से धूल झाड़कर
वापिस लौट रहा था।
स्कूल में आज बड़ी रौनक थी। सारा स्कूल आज बारात में तब्दील होने वाला था। शाम
को हिस्ट्री वाले अनिल सर की बारात जानी थी। बहुत से लोग अनिल के घर से सारी
रस्मों में शामिल होते हुए शादी की जगह पहुँचने वाले थे। प्रिंसिपल सर और जतिन
को खासतौर पर इसके लिए निमंत्रित किया गया था। अनिल के घर बारात का हुड़दंग
मचा था पर प्रिंसिपल सर आज हमेशा की तरह हँस नहीं रहे थे। एक खिंची-सी
मुस्कुराहट उनके चेहरे पर थी। काफी पूछने के बाद उन्होंने जतिन को बताया -
"बुरी खबर है जतिन... रावी का लिखित इस्तीफा मिला है आज। किन्हीं व्यक्तिगत
कारणों से वह यह नौकरी छोड़ना चाहती है।"
"सर आपने बात..." जतिन के अस्फुट से स्वर बाहर आने को फड़फड़ाए।
"मित्तल जी से बात हुई मेरी। संजीव ने भी समझाया पर उन्होंने तो सीधा ही कह
दिया - 'यहाँ ही नहीं कहीं भी नहीं करवानी नौकरी इस लड़की से' ...जतिन उनका
फैसला पक्का है।"
यानी रावी से उसके सपने ही नहीं आत्मनिर्भरता का अधिकार भी छिन गया जतिन के
चलते। ये तो जतिन ने कभी नहीं चाहा था। कितना कुछ टूट रहा था उसके भीतर और
कितना कुछ तोड़ा जा रहा था भीतर तक फिर भी जतिन की बाहर से सहज बने रहने की
कोशिशें जारी थीं। अचानक वह भीड़ में एकदम अकेला महसूस कर रहा था। एक मशीनी
तरीके से सेहराबंदी, घुड़चड़ी की रस्मों से जुडे़ हुए जतिन ने देखा सामने
संजीव सर थे। लड़खड़ाते कदमों से उनके करीब गया और गले लगकर रोने लगा। सही जगह
और मौका न होते हुए भी संजीव सर आज इस हरकत पर शांत थे। अपनी बाँहों में कसकर
जतिन को थामे थे और जतिन ढोल की तेज आवाज में अपनी बेसाख्ता रुलाई और दर्द को
पूरा मौका दे रहा था। जतिन के रोने में उसके चीखते हुए सवाल शामिल थे -"मित्तल
सर आपकी समस्या जात-बिरादरी है या बेटी के स्वतंत्र निर्णय?"
नहीं इसके बाद भी जीवन खत्म नहीं हुआ। जतिन की नौकरी चलती रही पर रावी को
जिंदादिल जिंदगी का तोहफा न दे पाने का दोषी खुद को मानते हुए उसने शादी नहीं
की। माँ की सारी साध मन में ही रह गई। बहू की मनमर्जी का खिलाना,
पहनाना-घुमाना ही नहीं दीवार पर रावी-जतिन की साथ बैठे हुए खिंचने वाली तसवीर
का फ्रेम भी खाली ही रह गया। जतिन अक्सर खुद को सजा देता हुआ देर शाम या कभी
अलस्सुबह पैदल लंबी दूरी तय करके जाता है रावी के घर तक और बिना उसे देखे लौट
आता है। रावी से बिछड़े हुए आज पाँच साल से अधिक बीत चुके हैं। चाहें तो इतना
और जोड़ लें कि जतिन आज भी औरों की तरह रावी को उस सबका दोषी नहीं ठहराता।
रावी को घर बिठा दिया गया है। कई साल गुजर गए घर कैद में। उसकी छोटी बहन की
शादी हो गई और शादी के लिए रावी की उम्र निकलती जा रही है। जतिन ने सुना,
स्कूल में ही कोई कह रहा था कि "रावी भाई के बेटे को ऐसे सँभाल रही है कि सगी
माँ भी क्या सँभालेगी। बड़ी ही आज्ञाकारी और अच्छी लड़की है... "एक बंधक आकाश
के नीचे दूसरों की दी हुई बैसाखियों पर चलते, अपने टूटे-बिखरे सपनों को खुद से
भी छिपाते, हरपल तसवीर की रावी की रक्षा करती वह आज्ञाकारी और अच्छी लड़की
नहीं तो और क्या है?